हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 34-46 का हिन्दी अनुवाद
अहो! विधवा नारी जब तक जीवित रहती है, उसे विलाप ही करना पड़ता है। उसका अन्त:करण रोता रहता है। हमें तो पति के साथ ही चलना है, ऐसे अवसर पर हम रो क्यों रही हैं?' इसी बीच में कंस की दुखिया माता काँपती हुई वहाँ आयी और ‘कहाँ है मेरा बच्चा? कहाँ है मेरा बेटा?’ ऐसा कहकर जोर-जोर से रोने लगी उसने अपने मरे हुए पुत्र को देखा। वह कान्तिहीन चन्द्रमा के समान प्रतीत होता था। उसकी ऐसी दशा देखकर माता का हृदय विदीर्ण हो गया। उसे बार-बार चक्कर आने लगा वह पुत्र के मुख की ओर देखती हुई चीखने लगी- ‘हाय! मैं मारी गयी!’ पुत्र बधुओं के आर्तनाद के साथ रोने-बिलखने लगी पुत्र के जीवन की इच्छा रखने वाली राजमाता उसके दीन मुख को अपनी गोद में रखकर आर्त वाणी में ‘हा पुत्र!’ कहकर करुणाजनक विलाप करने लगी- ‘बेटा! तुम तो वीर-व्रत में तत्पर रहते थे और अपने बन्धुक-बान्धवों का आनन्द बढ़ाते थे। वत्स! तुमने क्यों इतनी जल्दी यहाँ से प्रस्थान किया है? पुत्र! तुम बिना किसी नियम (नियन्त्रण)- के इस अत्यन्त खुले हुए स्थान में क्यों सो रहे हो? वत्स! तुम्हारे-जैसे शुभ लक्षण सम्पन्न नरेश इस तरह भूमि पर नहीं सोते हैं। तीनों लोकों में जो बल में सबसे बढ़ा-चढ़ा था, उस रावण ने प्राचीन काल में राक्षसों के समुदाय में इस सत्पु्रुषों द्वारा सम्मानित श्लोक का गान किया था। मैं इस प्रकार बल और पराक्रम में बढ़ा हुआ हूँ तथा देवताओं का वध करने में समर्थ हूँ तो भी मुझे अपने ही भाई-बन्धुओं से घोर एवं अनिवार्य भय प्राप्त होता होगा। उसी प्रकार मेरा बुद्धिमान पुत्र अपने सजातीय बन्धुओं पर लुभाया रहता था तो भी इसे भाई-बन्धुओं से ही यह देह विनाशक महान भय प्राप्त हुआ है’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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