ह्याँ हरि जू बहु क्रीड़ा करी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


ह्याँ हरि जू बहु क्रीड़ा करी। सो तौ चित तै जात न टरी।।
ह्याँ पय पीवत बकी साँहारयौ। सकट तृनावर्त ह्याँ हरि मारयौ।।
वच्छासुर कौ इहाँ निपात्यौ। बका, अघा ह्याँ हरि जू घात्यौ।।
हलधर मारयौ धेनुक कौ इहाँ। देखौ ऊधौ हतौ प्रलब जहाँ।।
ह्याँ तै ब्रह्मा वच्छ गयौ हरि। और किए हरि लागी न पल घरि।।
ते सब राखे सैति नरहरी। तब ह्याँ ब्रह्मा अस्तुति करी।।
ह्याँ हरि काली उरग निकास्यौ। लग्यौ जरावन अनल सु नास्यौ।।
वस्त्र हमारे हरि जू ह्याँ हरे। कहँ लगि कहियै जे कौतुक करे।।
हरि, हलधर ह्याँ भोजन किए। बिप्र तियनि कौ अति सुख दिए।।
इहाँ गोवर्धन कर हरि धारयौ। मधवा रिस तै हमै उवारयौ।।
सरद निसा मै रास रच्यौ इहँ। सो सुख हम पै वरनि जात कहँ।।
वृषभासुर कौ इहाँ सँघारयौ। भौमऽरु केसी इहाँ पछारयौ।।
ह्याँ हरि खेलत आँख मिचाई। कहँ लगि वरनै लीला गाई।।
सुनि सुनि ऊधौ प्रेम मगन भयौ। लोटत धर पर ज्ञान गरब गयौ।।
निरखत व्रज भू अति सुख पावै। ‘सूरज’ प्रभु गुन पुनि पुनि गावै।।4050।।

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