(हौ तौ मोहन के) बिरह जरी रे तू कत जारत।
रे पापी तू पखि पपीहा, पिय पिय करि अधराति पुकारत।।
करी न कछु करतूति सुभट की, मूठि मृतक अवलनि सर मारत।
रे सठ तू जु सतावत औरनि, जानत नहिं अपने जिय आरत।।
सब जग सुखी दुखी तू जल बिनु, तऊ न उर की व्यथा बिचारत।
‘सूर’ स्याम बिनु ब्रज पर बोलत, काहै अगिलौ जनम बिगारत।। 3338।।