हरि हरि-भक्तनि कौं सिर नाऊँ2 -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग सारंग
परीक्षित-कथा



कोउ कहै हरि-इच्छात दुख होइ। द्वितिया दुखदायक नहिं कोइ।
कोउ कहै सत्रु दुखदाई। सो तौ मैं न कीन्हि सत्राई।
काकौ नाम बताऊँ तोकौं। दुखदायक अदृष्ट मम मोकौं।
कहियत इतने दुख दातार। तुमहीं देखौ करौ विचार।
तब विचार करि राजा देख्यौ। सूद्र नृपति कलिजुग करि लेख्यौ।
वृषभ धर्म अरु पृथ्वी गाइ। इनकौं यहै भयौ दुखदाइ।
ताहि कह्यौ तू बड़ौ अधर्मी। तो समान नहिं और कुकर्मी।
छमा, दया, तप पग तै काट्यो। छाँड़ि देस मम, यह कहि डाँट्यौ।
तिन कह्यौ, मो मैं एक भलाई। तुमसौं कहौं, सुनौ चित लाई।
धर्म विचारत मन मैं होइ। ताही ठौर रहौं मैं जोइ।
राज तुम्हारौ है सब ठौर। तुम बिनु नृपति न द्वितिया और।
जौन ठौर मोहि आज्ञा होइ। ताही ठौर रहौं मैं जौइ।
कही, हरि-बिमुखऽरु बेस्या जहाँ। सुरापान, बधिकनि गृह तहाँ।
जूआ खेतल जहाँ जुआरी। ये पाँचौ हैं ठौर तुम्हारी।
पाँचौं होहिं नृपति ये जहाँ। मोकौं ठौर बताहु तहाँ।
तब नृप ताकौं कनक बतायो। कनक-मुकुट लखि सो लपटायौ।
इक दिन राइ अखेटहिं गयौ। ता बन माहि पियासो भयौ।
रिषि समीप के आस्रम आयौ। रिषि हरि-पद सौं ध्याोन लगायौ।
राजा जल ता रिषि सौं माँग्यौ। ताकौ मन हरि-पद सौं लग्यौ,।
राजा कौं उत्तर नहिं दियों। तब मन माहिं क्रोध तिन कियौ।
यह सब कलिजुग को परभाउ। जौ नृप कैं मन भयउ कुभाउ।
रिषि की कपट-समाधि बिचारि। दियौ भुजंग मृतक गर डारि।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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