हरि सबकैं मन यह उपजाई। सुरपति निंदत गिरिहिं बड़ाई।।
बरस बरस प्रति इंद्र पुजाई। कबहुं प्रसन्न भयौ नहिं आई।।
पूजत रहे बृथाहीं सुरपति। सब मुख यह बानी घर-घर प्रति।।
बड़ौ देव यह गिरि गोवर्धन। यहै कहत ब्रज, गोकुल पुर-जन।।
तहाँ दूत सब इंद्र पठाए। ब्रज-कौतुक देखन कौं आए।।
घर-घर कहत बात नर नारी। दूत सुन्यौ सो स्रवन पसारी।।
मानत गिरि, निंदत सुरपति कौं। हँसत दूत, ब्रज-जन-गई मति कौं।।
सूर सुनत दूतनि रिस पाए। उठि तुरतहिं सुर-लोकहिं आए।।
ब्रह्म दई जाकौं ठकुराई। त्रिदस कोटि देवनि के राई।।
गिरि पूज्यौ तिनहीं बिसराई। जाति-बुद्धि इनके मन आई।।
सिव-बिरंचि जाकौं कहैं लायक। जाके हैं मघवा से पायक।।
यह कहतहिं आए सुरलोकहिं। पहुँचे जाइ इंद्र के ओकहिं।।
दूतनि ऐसी जाइ सुनाई। बैठे जहाँ सुरनि के राई।।
कर जोरे सनमुख भए आई। पूछि उठे ब्रज की कुसलाई।।
दूतनि ब्रज की बात सुनाई। तुमहि मेटि पूज्यौ गिरि जाई।।
तुमहिं निंदि गिरिवरहिं बड़ाई। यह सुनतहिं रिस देह कँपाई।।
सूर स्याम यह बुद्धि उपाई। ज्यौं जानै ब्रज मैं जदुराई ।।922।।