हरि बिनु इहिं बिधि है ब्रज रहियतु।
पर पीरहि तुम जानत ऊधौ, तातै तुमसौ कहियतु।।
चंदन चंदकिरनि पावक सम, इन मिलि कै तन दहियतु।
रजनी जात गनत ही तारे जतन नहीं निरबहियत।।
बासर हू या विरहसिंधु कौ, क्यौहू पार न लहियत।
फिरि फिरि वहै अवधि अवलंबन, बूड़त ज्यौ तृन गहियत।।
एक जु हरि दरसन की आसा, ता लगि दुख यह सहियत।
मन क्रम वचन सपथ सुनि ‘सूरज’, और नहीं कछु चहियत।।3911।।