हरिहिं मिलत काहे कौं घेरी।
दरस देखि आर्वौ श्रीपति कौ, जान देहु हौं होति हौं चेरो।।
पालागौं छाँड़हु अब अंचल, बार बार बिनती करौं तेरो।।
तिरछौ करम भयौ पूरब कौ, प्रीतम भयौ पाइ की बेरी।।
यह लै देह मारु सिर अपनैं, जासौं कहत कंत तुम मेरी।।
सूरदास सो गई अगमनै, सब सखियनि सौं हरि-मुख हेरी ।।807।।