हरिसुत सुत हरि के तन आहि।
ह्याँ को कहै कौन की बातै, ज्ञान ध्यान कौ काहि।।
को मुख भ्रमर तासु जुवता का, को जिन कस हते।
हमरे तौ गोपतिंसुत अधिपति, बलति न औरनि तै।।
मोरज रंध्र रूप रुचिकारी, चितै चितै हरि होत।
कबहूँ कर करनी समेति लै, नैकु मान कै सोत।।
ता रिपु समै संग सिसु लीन्हे, आवत है तन घोष।
'सूरदास' स्वामी मन मोहन, कत उपजावत दोष।।3842।।