हम मतिहीन कहा कछु जानै, व्रजवासिनी अहीर।
वै जु किसोर नवल नागर तन, बहुत भूप की भीर।।
वचन की लाज सुरति करि राखौ, तुम अलि इतनौ कहियौ।।
भली भई जौ दूत पठायौ, इतनौ बोल निबहियौ।।
एक बार तौ मिलौ कृपा करि, जौ अपनौ व्रज जानौ।
यहै रीति ससार सबनि कौ, कहा रंक कह रानौ।।
हम अनाथ तुम नाथ गुसाई, राखौ क्यौ नहिं सोई।
षट रितु व्रज पै आनि पुकारै, ‘सूरदास’ अब कोई।।4065।।