सोई हरि काँधे कामरि, काछ, किए नाँगे पाइनि गाइनि टहल करैं।
त्रिभुवनपति, दिसिपति, नर-नारी-पति, पंछिनिपति, रवि-ससि जाहि डरैं।
सिव-विरंचि ध्यान धरत, भक्त त्रिविध ताप हरत, तिनहिं हित बपु धरैं।
सूरदास जिनके गुन, निगम नेति गावत, तेइ बन-बन मैं बिहरैं।।453।।