सूरसागर सप्तम स्कन्ध पृ. 256

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सूरसागर सप्तम स्कन्ध-256

विनय राग

426.राग बिलावल - भगवान का श्री शिव को साहाय्य-प्रदान
हरि हरि, हरि हरि सुमिरन करौ। हरि-चरनारबिंद उर घरो।
हरि ज्यौ सिव की करी सहाइ। कहौं सथा, सुनौ चित लाइ।
एक समय सुर-असुर प्रचारि। लरे भई असुरनि की हारि।
तिन ब्रह्मा कै हित तप कीन्हों। ब्रह्म प्रगटि दरसन तिन दीन्हौ।
तब ब्रह्मा सौ कह्मों सिर नाइ। हमरौ जय ह्नैहै किहि भाइ।
ब्रह्मा तब चह बचन उचारौ। मय सोमाया-कोट सँवारी।
तामैं बैठि सुरनि जय करौ। तुमउनके मारै नहि मरो।
असुरनि यह मय कौ समुझाई। तब मय दीन्हों कोट बनाई।
लोह तरै, मधि रूपा लायौ। ताके ऊपर कनक लगायौ।
जहँलै जाइ तहाँ वह जाइ। जियौ ध्सुरनि सौ अमुत छिनाइ।
सुर सब मिलि गए सिव सरनाइ। सिव तब तिनकी करो सहाइ।
पै सिव जाकौ मारै धाइ। अमृत प्याइ तिहि लेहि जिबाइ।
तब सिव कीन्हो हरि कौ ध्यान। प्रगट भए तहँ श्री भगवान।
सिव हरि सौ सब कथा सुनाई। हरि कहयौ, अब मैं करौ सहाइ।
सुंदर गऊ-रूप् हरि कीन्हौ। बछरा करि ब्रह्मा सँग लोन्हौ।
अमृत-कुंड मै पैठे जाइ। कह्मौ असुरनि, मारौ इहि गाइ।
एकनि कह्मौ, याहि मत मारौ। याको सुंदर रूप् निहारौ।
केतिक अमृत पिएयह भाइ। हरि मति तिनकी यौ भरमाइ।
हरि अमृत लै गए अकास। असुर देखि यह भए उदास।
कह्मों इनहीं रिनाच्छहि मान्यौ। हिरनकसिप इनहीं संहारयौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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