सूरसागर सप्तम स्कन्ध पृ. 249

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सूरसागर सप्तम स्कन्ध-249

विनय राग

421.राग बिलावल - श्री नृसिंह अवतार
तीनौपन ऐसैही जाइ। तातैं अबहि भजौ जदुराइ।
बिषै-भोग स बतन मै होइ। बिनु नर-जन्म भक्ति नहिं होइ।
जौ न करै तौ पसु सग होइ। तातैं भक्ति करौ सब कोइ।
जब लगि काल न पहुँचै आइ। हरि की भक्ति करौ चित लाइ।
हरि व्यापक है सब संसार। ताहि भजौ अब सोचि-विचार।
सिसु, किसोर, बिरधो तनु होइ। सदा एकरस आतम सोइ।
ऐसौ जानि मोह कौ त्यागों। हरि चरनारबिंद अनुरागों।
माटी मै ज्यौ कंचन परै। त्यौही आतम तन संचरै।
कंचन लै ज्यौ माटी तजै। त्यों तन-मोह छाँडि़ हरि भजै।
नर-सेवा तै जो सुख होइ। छनभंगुर थिर रहै न सोइ।
हरि की भक्ति करौ चित लाइ। होइ परम सुख, कबहुँ न जाइ।
हरि की भक्ति करौ चित लाइ। होइ परम सुख, कबहुँ न जाइ।
ऊँच-नीच हरि गिनत न दोइ। यह जिय जानि भजौ सब कोई।
असुर होइ, भावे सुर होइ। जो हरि भजै पियारौ सब कोइ।
रामहि राम कहौ दिन-रात। नातरू जन्म अकारथ जाता।
सो बातनि की एकै बात। सब तजि भजौ जानकीनाथ।
सब चेटुअनि मन ऐसी आई। रहै सबै हरि पद चित लाई।
हरि हरि नाम सदा उच्चारै। विद्या और न मन मै धारै।
तब संडामर्का संकाइ। कह्मों असुरपति सौ यौ जाइ।
तब सुत को पढाइ हम हारे। आपु पढै नहि, और बिगारै।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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