187.राम धनाश्री
अधम की जौं देखौं अधभाई।
सुनु त्रिभुवन-पति, नाथ हमारे, तौ कछु कह्यौ न जाई।
अजहूँ लौं मन मगन काम सौं, बिरति नाहिं उपजाई।
परम कुबुद्धि, अजान ज्ञान तैं, हिय जु वसति जड़ताई।
पाँचौ देखि प्रगट ठाढ़े ठग हडनि ठगौरी खाई।
सुमृति-वेद मारग हरिपुर कौ, तातैं लियौ भुलाई।
कंटक-कर्म कामना कानन कौ, मग दियौ दिखार्इ।
हौं कहा कहौ, सबै जानत हौ, मेरी कुमति कन्हाई।
सूर पतित कों नाहिं कहूँ गति राखि लेहु सरनाई।
188.राग सारंग
तातैं विपति-उधारन गायौ।
स्त्रबननि माखि सुनी भक्तनि मुख, निगमनि भेद बतायो।
सुवा पड़ावत जीभ लड़ावति, ताहिं विमान पठायौ।
चरन-कमल परसत रिपि-पतिनी, तजि पषान, पद पायौ।
सब-हित-कारन देव अभय पद, नाम प्रताप बढ़ायौ।
आरतिवंत सुनत गज-क्रंदन, फंदन काटि छुड़ायो।
पावँ अबार सु धारि रमापति, अजस करत जस पायौ।
सूर कूर कहै मेरी बिरियाँ कितै बिसरायौ।