179.राग गौरी
जानि हौं अब वाने की बात।
मोसौं पतित उधारौ प्रभु जौ, तौ बदिहौं निज तात।
गीध, ब्याघ, गनिकाऽरू अजामिल, ये को आहिं विचारे।
ये सब पतित न पूजत मो सम, जिते पतित तुम तारे।
जौ तुम पतितनि के पावन हौ, हौं हूँ पतित न छोटौ्।
विरद आपुनौ और तिहारौ, करिहौं लोटक-पोटी।
कै हौं पतित रहौं पावन ह्वै, कै तुम बिरद छुड़ाऊँ।
द्वै मैं एक करौं निरबारौ, पतितनि-राव कहाऊँ।
सुनियत है, तुम बहु पतितनि कौं दीन्हौं है सुखधाम।
अब तौ आनि परयौ है गाढी, सूर पतित सौं काम।
180.राग जैतश्री
तब विलंब नहिं कियौ, जबै हिरनाकुस मारयौ।
तब विलंब नहिं कियौ, केस गहि कंद पछारयौ।
तब विलंब नहिं कियौ, सीस दस रावन कट्टे।
तब विलंब नहिं कियौ, सबै दानव दहपट्टे।
जौरि सूर विनती करै, सूनहु न हौ रूकमिनि-रवन।
काटौ न फंद मो अंध के, अब विलंब कारन गवन ?