सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 87

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-87

विनय राग


175.राम अहीरी
भवसागर मैं पैरि न लीन्‍हौ,
इन पतितनि कौं देखि देखि कै पाछै सोच न कीन्‍हौं ।
अजामोल-गनिकादि आदि है, पैरि पार गहि पैलौ।
संग लगाइ बीचहीं छाँड़यौ, निपट अनाथ अकेलौ।
अति गंभीर, तीर नहि नियरैं, किहि बिधि उतरयो जात ?
नहीं अधार नास अवलोकत, जित-तित गोता खात।
मोहिं देखि सब हँसत परस्‍पर, दै दै तारी तार।
उन तौ करी पाछिले की गति, गुन तौर््यौ विच धार।
पद-नौका की आस लगाए, बूड़त हौं बिनु छाहँ।
अजहूँ सूर देखिबौ करिहो, बेगि गही किन बाहँ ?

176.राग सोरठा
भरोसौ नाम कौ भारी।
प्रेम सौं जिन नास लीन्‍हौ, भये अधिकारी।
ग्राह जब गजराज धेरयौ, बल गयौ हारी।
हारि कै जब टैरि दोन्‍हो, पहुँचे गिरिधारी।
सुदामा-दारिद्र भंजे, कूबरी तारी।
द्रौपदी कौ चीर बढयौ, दुस्‍सासन गारी।
बिभीषन कौं लंक दीनी, रावनहिं मारी।
दास ध्रुव कौं अटल पद दियौ राम-दरबारी।
सत्‍य भक्‍तहिं तारिबे कौं, लीला बिस्‍तारी।
चेर मेरी दयौं ढील कीन्‍हीं, सूर बलिहारी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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