सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 69

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-69

विनय राग


139.राग सारंग
हो तौ पतित-सिरोम नि माधौ।
अजामील बातनि हीं तारयौ, हुतौ जु मौतै आधौ।
कै प्रभु हार मान कै बैठौ कै अवहीं निस्‍तारौ।
सूर पतित कौं और ठौर नहिं है हरि-नाम सहारौ।

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140.राग सारंग
माधौ जू मोतै और न पापी
घातक, कुटिल, चबाई, कपटी, महाक्रूर संतापी।
लंपट, धूत, पूत दमरी कौ, विषय-जाप कौ जापी।
भच्छि अभच्‍छ, अपान पान करि, कबहुं न मनसा धापी।
कामी, विसय कामिनी कै रस, लोभ-लालसा थापी।
मन-क्रम-वचन-दुसह सबहिनि सौं कटुक-वचन-आलापी।
जेतिक अधम उधारे प्रभु तुम, तिनकी गति मैं नापी।
सागर-सूर बिकार भरयौ जल, बधिक अजामिल बापी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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