सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 68

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-68

विनय राग


137.राग सारंग
प्रभु हौं बड़ी बेर कौ ठाढ़ौ।
और पतित तुम जैसे तारे, तिनही मैं लिखि काढ़ौ।
जुग-जुग विरद यहै चलि आयों, टेरि कहत हौं यातै।
मरियत लाज पांच पतितनि मैं, हौं अब कहौ घटि कातै।
कै प्रभु हारि मानि कै बैठौ, कै करौ बिरद सही।
सूर पतित जो भुठ कहत है, देखौ खोजि बही।

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138.राग सारंग
प्रभु हौ सब पतितनि को टीकौ।
और पतित सब दिवस चारि कै, हौ तौ जनमत ही कौ।
अधिक अजामिल गनिका तारी और पूतना हो कौ।
मोहिं छांडि तुम ओर उधारे मिटै सूल क्‍यौं जी कौ।
काउ न समरथ अध करिथे कौं खेचि कहत हौं लीकौ।
मरियत लाज सूर पतितनि मैं, मोहूँ तै कौ नीकौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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