सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 63

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 63

विनय राग


127.राग धनाश्री
सोइ कछु कीजै दीन-दयाल।
जाते जन छन चरन न छांड़े करुना-सागर भक्त-रसाल।
इंद्री अजित, बृद्धि विषयारत, मन की दिन-दिन उलटी चाल।
काम-क्रोध-मद-लोभ-महाभय, अह-निसि नाथ, रहत बेहाल।
जोग-जुगति, जप-तप, तीरथ-व्रत, इनमैं एकौं अंक न भाल।
कहा करौं, किहि भाँति रिभावौं, हौं तुमकौ सुंदर नंदलाल।
सुनि समरथ, सरवज्ञ, कृपानिधि, असरन सरन, हरन जग-जाल।
कृपानिधान, सूर की यह गति, कासौं कहै कृपन इहि काल।।

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128.राग गूजरी
कृपा अब कीजिऐ बलि जाउं।
हौं असौच, अक्रित, अपराधी, सनमुख होत लजाउं।
तुम कृपाल, करुनानिधि, केसव, अधम-उधारन-नाउं।
काकैं द्वार जाइ होउं ठाढ़ौ, देखत काहि सुहाउं।
असरन सरन नाम तुम्‍हारौ, हौं कामी, कुटिल, निभाउं।
कलुषी अरु मन मलिन बहुत मैं सेंत-मेंत न बिकाउं।
सूर पतितपावन पद अंवुज, सो क्‍यौं परिहरि जाउं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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