121.राग आसावरी
कवहूँ तुम नाहिंन गहरु कियौ।
सदा सुभाव सुलभ सुमिरन बस, भक्तनि अभै दियौ।
गाइ सुभाव सुलभ सुमिरन बस, भक्तनि अभै दियौ।
अध-अरिष्ट केसी, काली मथि दावान लहिं पियौ।
कंस-बंस बधि, जरा संध हति, गरु-सुत आनि दियौ।
दरषत सभा द्रुपद-तनया कौ अंवर अछय कियौ।
सूर स्याम सरवज्ञ कृपानिधि, करुना-मृदुल-हियौ।
काकी सरन जाउं नंदनंदन, नाहिंन और बियौ।
122.राग सारंग
तातै तुम्हरौ भरोसौ आवै।
दीनानाथ पतित-पावन, जस वेद-उपनिषद गावै।
जौ तुम कहौ कौन खल तारयौ, तौ हौं बोलौं राखी।
पुत्र-हेत सुर लोक गयो द्विज, सक्यौ न कोऊ राखी।
गनिका किए कौन ब्रत-संजम, सुक-हित नाम पढ़ावै।
मनसा करि सुमिरयौ गज बपुरै, ग्राह प्रथमगति पावै।
बकी जु गई घोष मैं छल करि, जसुदा को गति दीनी।
और कह त सत्रुति, वृषभ-ब्याध की जैसी गति तुम कीनी।
द्रुपद-सुताहि दुष्ट दुरजोधन सभा माहिं प्रकरावै।
ऐसौ और कौन करुनामय, बसन-प्रवाह बढ़ावै।
दुखित जानिकै सुत कुबेर के तिन्ह लगि आपु बंधावै।
ऐसौ को ठाकुर, जन-कारन दुख सहि, भलौ मनावै।
दुरबासा दुरजोधन पठयौ पांडव-अहित बिचारी।
साक पत्र लै सबै अघाए, न्हात भजे कुस डारी।
देवराज मष-भंग जानि कै बरष्यौ ब्रज पर आई।
सूर स्याम राखे सब निज कर, गिरि लै भए सहाइ।