101.राग धनाश्री
आछौ गात अकारथ गारयौ।
करी न प्रीति कमल-लोचन सौं, जनम जुवा ज्यौं हारयौ।
निसि-दिन विषय-विलासनि विलसत, फूटि गई तब चारयौ।
अब लाग्यौ पछितान पाइ दु:ख, दीन, दई कौ मारयौ।
कामो, कृपन, कुचील, कुदरसन, को न कृपा करि सारयौ।
तातै कहत दयाल देव मनि, काहै सूर बिसारयौ।
102.राग सारंग
माधौ जू, मन सबही विधि पोच।
अति उनमत्त, निरंकुस, मैगल, चिंता-रहित, असोच।
महा मूढ़ अज्ञान-तिमिर-महं मगन होत सुख मानि।
तेली के वृष लौं नित भरमत, भजत, न सारंगपानि।
गीध्यौ दुष्ट हेम तस्कर ज्यौं, अति आतुर मति-मंद।
लुवध्यौ स्वाद मनी-आमिष ज्यौं अवलोक्यौ नहिं फंद।
ज्वाला-प्रीति प्रगट सन्मुख हठि, ज्यौं पतंग तन जारयौ।
विषयअसक्त, अमित अघ-ब्याकुल, तबहूँ कछू न संभारयौ।
ज्यौं कपि सीत-हतन-हित गुंजा सिमिटि होत लौलीन।
त्यौं सठ बृथा तजत नहिं कवहूं, रहत विषय-आधीन।
सेमर-फूल सुरंग अति निरखत, मुदित होत खग-भूप।
परसत चोंच तूल उघरत मुख, परत दु:ख कैं कूप।
जहाँ गयौ तहं भलौ न भावत, सब कोऊ सकुचानौ।
ज्ञान और बैराग भक्ति, प्रभु, इनमैं कहूँ न सानौ।
और कहां लौं कहौं एक मुख, या मन के कृत काज।
सूर पतित तुम पतित उधारन, गहौ विरद की लाज।