81.राग कान्हरौ
जौ अपनौ मन हरि सौं रांचै।
निसि-दिन नाम लेत ही ही रसना, फिरि जु प्रेम-रस मांचै।
इहिं विधि सकल लोक मैं वांचै, कौन कहै अब सांचै।
सोत-उध्न, सुख-दुख नहिं मानै, हर्ष-सोक नहिं खांचै।
जाइ समाइ सूर वा निधि मैं, बहुरि जगत नहिं नाचै।
82.राग टोड़ी
जो घट अंतर हरि सुमिरै।
ताकौ काल रुठि का करिहै, जो चित चरन धरै।
कोपै तात प्रहलाद भगत कौ, नामहिं लेत जरै।
खंभ फारि नरसिंह प्रगट ह्रै, असुर के प्रान हरै।
सहस बरस गज युद्ध करत भए, छिन इक ध्यान धरै।
चच्र धरे बैकुंठ तैं धाए, बाकी पैज सरै।
अजामील द्विज सौं अपराधी, अंतकाल बिडरै।
सुत-सुमिरत नारायन-बानो, पार्षद धाइ परैं।
जहं जहं दुसह कष्ट भक्तनि कौं, तहं तहं सार करै।
सूरदास स्याम सेए तैं दुस्तर पार तरै।