59.राग नट
रे मन, छाँड़ि विषय को रेंचिवो।
कत तूं सुवा हौत सेमर कों, अंतहि कपट न वचिवो।
अंतर गहत कनक-कामिनि कों, हाथ रहेगौ पचिवो।
तजि अभिमान, राम कहि बौरे, नतरुक ज्वाला तचिवो।
सतगुरु कह्रौ, कहौं तोसों हों, राम-रतन धन सचिवो।
सूरदास-प्रभु हरि-सुमिरन बिनु जोगी-ऋषि ज्यौं नचिव।
60.राग देवगंधार
चौपरि-जगत मड़े जुग बोले।
गुन पांसे, क्रभ अंक, चारि गति सारि, न कवहूँ जीते।
चारि पसार दिसानि, मनोरथ घर, फिर-फिरि गिनि आनै।
काम-क्रोध-मद-संग मूढ़ मन खेलत हार न मानै।
बाल-विनोद बचन हित-अनहित बार बार मुख भाखै।
मनौ वेग बगदाइ प्रथम दिसि आठ-सात-दस नाखै।
षोड़स जुक्ति, जुवति चित षोड़स, षोड़स बरस निहारै।
षोड़स अंगनि मिलि प्रजंक पै छ-दस अंक फिरि डारै।
पंद्रह पित्र-काज, चौदह दस-चारि पठे, सर सांधे।
तेरह रतन कनक रुचि द्वादस अटन जरा जग बांधे।
नहिं रुचि पंथ, पयादि डरनि छकि पंथ एकादस ठानै।
नौ दस आठ प्रकृति, तृष्ना सुख सदन सात संधानै।
पंजा पंच प्रपंच नारि-पर भजत, सारि फिरि मारो।
चौक चबाउ भरे दुबिधा छकि रस रचना रुचि धारी।
बाल, किसोर, तरुन, जर, जुग सो सुपक सारि डिग ढारी।
सूर एक पौ नाम बिना नर फिरि फिरि बाजी हारी।