सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 3

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-3

विनय राग


5.राग मारु
ऐसी को करी अरु भक्त काजै।
जैसी जगदीश जिय धरी लाजै।।
हिरनकस्‍यप बढ़यो उदय अरु अस्‍त लौं, हठी प्रहलाद चित चरन लायौ।
भीर के परे तैं धी सबहिनि तजी, खंभ तैं प्रगट ह्रै जन छुड़ायौ।
ग्रस्‍यौ गज ग्राह लै चल्‍यौ पाताल कौं, काल कैं त्रास मुख नाम आयौ।
छांडि सुख धाम अरु गरुड़ तजि सांवरौ, पवन के गवन तैं अधिक धायौ।
कोपि कौरव गहे केस सभा मैं, पांडु की वधु जस नैंकु गायौ।
लाज के साज मैं हुती ज्‍यौं द्रौपदी, बढ़यौ तन-चीर नहिं अंत पायौ।
रोर कै जोर तैं सोर धरनी कियौ, चल्‍यौ द्विज द्वारिका-द्वार ठाढौ।
जोरि अंजलि मिले, छोरि तंदुल लए, इंद्र के विभव तैं अधिक बाढ़ौ।
सक्र कौ दान-बलि मान ग्‍वारनि लियौ, गह्रौ गिरिपानि, जस जगत छायौ।
यहै जिय जानि कैं अंध भव त्रास तै, सूर कामी कुटिल सरन आयौ।

6.रात्र रामकली
का न कियौ जन-हित जदुराई।
प्रथम कह्रौ जो वचन दयारत, तिहि बस गोकुल गाइ चराई।
भक्तवछल बपु धरि नरकेहरि, दनुज दह्रौ, उर दरि, सुरसांई।
बलि बल देखि, अदिति-सुत कारन, त्रिपद ब्‍याज तिहुंपुर फिरि आई।
एहि थर वनी क्रीड़ा गज-मोचन और अनंत कथा स्‍त्रुति गाई।
सूर दीन प्रभु-प्रगट-बिरद सुनि अजहै दयाल पतत सिर नाई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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