सूरसागर प्रथम स्कन्ध पृ. 28

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सूरसागर प्रथम स्कन्ध-28

विनय राग


55.राग सारंग
फिरि फिरि ऐसोई है करत।
जैसैं प्रेम पतंग दीप सौं, पावक हू न डरत।
भव-दुख-कूप ज्ञान करि दीपक, देखत प्रगट परत।
काल-ब्‍याल, रज-तम-बिष-ज्‍वाला कत जड़ जंतु जरत।
अविहित बाद-बिवाद सकल मत इन लगि भेष धरत।
इहिं विधि भ्रमत सकल निसि-दिन गत, कछू न काज सरत।
अगम सिंधु जतननि सजि नौका, हठि क्रम-भार भरत।
सूरदास-व्रत यहै, कृष्‍ण भजि, भव-जलनिधि उतरत।

56.राग केदारौ तृष्‍णा-वर्णन
माधौ, नैंकु हटकौ गाइ।
भ्रमत निसि-बासर, अपथ-पथ, अगह गहि नहिं जाइ।
छुघित अति न अघाति कबहूं, निगम-द्रुम दलि खाइ।
अष्‍ट -दस-घट नीर अंचवति, तृषा तऊ न बुक्ताइ।
छहौं रस जौ धरौं आगै, तऊ न गंध सुहाइ।
और अहित अभच्‍छ मच्‍छति, कला बरनि न जाइ।
ब्‍योम, धर, नद, सैल, कानन इते चरि न अघाइ।
नील खुर अरु अरुन लोचन, सेत सींग सुहाइ।
भुवन चौदह खु‍रनि खूंदति, सु घौं कहां समाइ।
ढीठ, निठुर, न डरति कांहू, त्रिगुन ह्यै समुहाइ।
हरै खल-बल दनुज-मानव-सुरनि सीस चढ़ाइ।
रचि-बिरचि मुख-भौंह-छबि, लै चलति चित्त चुराइ।
नारदादि सुकादि मुनिजन थके करत उपाइ।
ताहि कहु कैसै कृपानिधि, सकत सूर चराइ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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