सुफलकसुत हरि दरसन पायौ।
रहि न सक्यौ रथ पर मुख व्याकुल, भयौ वहै मन भायौ।।
भू पर दौरि निकट हरि आयौ, चरननि चित लगायौ।
पुलक अंग, लोचन जलधारा, श्रीपद सिर परसायौ।।
कृपासिंधु करि कृपा मिले हँसि, लियौ भक्त उर लाइ।
'सूरदास' यह सुख सोइ जानै, कहौ कहा मै गाइ।।2952।।