सुनु सखा हित प्रान मेरै, नाहिंनै सम तोहि।
कैसैहू करि उरिन कीजै, गोपिकनि सौ मोहिं।।
रैनि दिन मम भक्ति उनकै, कछू करत न आन।
और सरबस मोहिं अरप्यौ, तरुनि तन धन प्रान।।
व्याज मैं ये रतन दीन्हे, वृथा गोपकुमारि।
सालोकता सामीपता सारूपता, भुज चारि।।
इक रही सायुज्जता सो, सिद्ध नहिं बिनु ज्ञान।
सोइ तुम उपदेसियौ जिहिं, लहै पद निर्वान।।
जौ न अंगीकृत करै वै होइ हौ रिन दास।
‘सूर’ गाइ चराइहौ मैं, बहुरि बसि ब्रजबास।। 3431।।