मैं सीता, रावन हरि ल्यायौ, त्रास दिखावत मोहिं।
अब मैं मरौं सिंधु मैं बूड़ौं चित्त मैं आवै कोह।
सुनौ बच्छ, धिक जीवन मेरौ, लछिमन-राम-बिछोह।
कुसल जानकी, श्रीरघुनंदन, कुसल लच्छिमन भाइ।
तुम-हित नाथ कठिन व्रत कीन्हौ, नहिं जल-भोजन खाइ।
मुरै न अंग कोउ जो काटै, निसि-बासर सम जाइ।
तुम घट प्रान देखियत सीता, बिना प्रान रघुराइ।
बानर बीर चहूँ दिसि धाए, ढूढ़ै गिरि-बन-झार।
सुभट अनेक सबल दल साजे, परे सिंधु के पार।
उद्यम मेरौ सफल भयौ अब, तुम देख्यौ जो निहारि।
अब रघुनाथ मिलाऊँ तुमकौं सुंदिर सोक निवारि।
यह सुनि सिय मन संका उपजो, रावन-दूत बिचारि।
छल करि आयौ निसिचर कोऊ, बानर रूपहिं धारि।
स्रवन मूँदि मुख आँचर ढाँप्यौ अरे निसाचर, चोर।
काहे कौं छल करि-करि आवत, धर्म बिनासन मोर?
पावक परौं, सिंधु महँ बूढ़ौं नहिं मुख देखैं तोर।
पापी क्यौं न पीठि दै मोकौं, पाहन सरिस कठोर।