सुनियै व्रज की दसा गुसाई।
रथ की धुजा पीत पट भूषन देखत ही उठि धाई।।
जो तुम कहौ जोग की बातै, सो हम सबै बताई।
श्रवन मूँदि गुन कर्म तुम्हारे, प्रेम मगन मन गाई।।
औरौ कछू सँदेस सखी इक, कहत दूरि लौ आई।
हुतौ कछू हमहूँ सौ नाती निपट कहा बिसराई।।
‘सूरदास’ प्रभु वन विनोद करि, जे तुम गाइँ चराई।
ते गाई अब ग्वाल न घेरत, मानौ भई पराई।।4099।।