सुनहु सखी हरि करत न नीकी।
आपु स्वारथी है मनमोहन, पीर नहीं पर ही की।।
वै तौ निठुर सदा मैं जानति, बात कहत मनही की।
कैसहुँ उनहिं हाथ करि पाऊँ, रिस मेटौ सब जी की।
चितवत नही मोहिं सुपनैहूँ, को जानै उन ही की।
ऐसै मिली 'सूर' के प्रभु कौ मनहुँ मोल लै बीकी।।1895।।