साध नहीं जुवतिनि मन राखी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सोरठ


साध नहीं जुवतिनि मन राखी।
मन वांछित सबहिनि फल पायौ, बेद-उपनिषद साखी।।
भुज भरि मिले, कठिन कुच चांपे, अधर सुधा रस चाखी।
हाव-भाव नैननि सैननि दै, बचन रचन मुख भाषी।।
सुक भागवत प्रगट करि गायौ, कछू न दुविधा राखी।
सूरदास ब्रजनारि संग-‍हरि, बाकी रही न काखी।।1172।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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