सरद निसा आई जोन्ह सुहाई।
बृंदाबन घन मैं जदुपति राई।।
सप्त सुरनि बिधि सौं मुरलि बजाई।
सुनि धुनि नारि चली व्रज तजि आई।।
छंद
(धुनि) सुनत ब्याकुल भई जुवती, मदन तन आतुर करी।
बिवस भई तन-मन भुलानी, भवन कारज परिहारी।।
उलटि भूषन सब बनाए, अंग की सुधि बीमरी।
नंद-सुत चित बित चुरायौ, आइ भई सब हाजिरी।।
हाजिर आइ भईं जहँ बनवारी।
निसि कहँ धाइ चलीं घोष-कुमारी।।
बचन सुनाए मोहन नागरि कौं।
पति गृह त्यागे, गुरुजन-बागरि क्यौं।।
छंद
गेह सुत पति त्यागि आईं नाहिनैं जु भली करी।
पाप पुन्य न सोच कीन्हौ, कहा तुम जिय यह धरी।।
अजहुं धर फिरि जाहु कामिनी, काहु सो जो हम कहैं।
लोक-बेदनि बिदित गावत, पर पुरुष नहिं धनि लहैं।।
निठुर बचन सुनि ग्वालिनी निठुर भई।
मुरझाइ रहीं सुधि बुधि सबै गईं।।
बिनय बचन कहि कै ग्वारि सुनाए।
तुव चरननि मन दै सब बिसराए।।