वृषभानु नंदिनी अति सुछबि मयी बनी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिहागरौ


वृषभानु नंदिनी अति सुछबि मयी बनी।
बृंदावन-चंद राधा निरमल चाँदनी।।
स्याम अलकनि सुवीच मोती-दुति मंगा।
मानहुँ झलमलति संभु के सीस गंगा।।
स्रवन ताटंक सोहै चिकुरनि की कांति।
उलटि चल्यौ है राहु चक्र की सु भाँति।।
गोरैं ललाट सोहै सेंदुर कौ बिंद।।
ससिहिं उपमा देइ को कबि को है निंद।।
आलस उनींदे नैन, लागत सुहाए।
नासिका चंपक कली कौं अली भाए।।
बदन-मंजन तैं अंजन गयौ ह्वै दूरि।
कलँक रहित ससि पून्यौ ज्यौं कला पूरि।।
गिरि तैं लता हैं भई यह तौ हम सुनि।
कंचन लता तैं भए द्वै गिरि वर पुनि।।
कंचन ते तनु सोहै नीलांबर सारी।
कुहूं-निसा मध्य मनौ दामिनी उज्यारी।।
नख सिख सोभा मोपै बरनी नहिं जाइ।
तुम सी तुमहीं राधा स्यामहिं मन-भाइ।।
यह छबि सूरदास मन नित रहै बानी।
नंद के नँदन राजा राधिका रानी।।1076।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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