विधना चूक परी मैं जानी।
आजु गुबिदहिं देखि देखि हौ, यहै समुझि पछितानी।।
रचि पचि, सोचि, सँवारि सकल अँग, चतुर चतुरई ठानी।
दृष्टि न दई रोम-रोमनि-प्रति, इतनिहिं कला नसानी।।
कहा करौ, अति सुख, द्वै नैना, उमँगि चलत पल पानी।
‘सूर’ सुमेरु समाइ कहाँ लौ, बुधि बासनी पुरानी।।1784।।