लोचन लालच तै न टरै ।
हरि मुख एक रंग सँग बीधे, दाधे फेरि जरै ।
ज्यौ मधुकर रुचि रच्यौ केतकी, कटक कोटि अरै ।
तैसेइ लोभ तजत नहिं लोभी, फिरि फिरि फेरि फिरै ।।
मृग ज्यौ सहज सहत सर दारुन, सन्मुख तै न दुरै ।
जानत आहिं हतै, तन त्यागत, तापर हितै करै ।।
समुझि न परै कौन सचु पावत, जीवत जाइ मरै ।
‘सूर’ सुभट हठ छाँड़त नाही, काटे सीस लरै ।। 3244 ।।