रुकमिनी चलौ जन्मभूमि जाहिं।
जद्यपि तुम्हरौ विभव द्वारिका, मथुरा है सम नाहिं।।
जमुना के तट गाइ चरावत, अमृत जल अँचवाहिं।
कुंज केलि अरु भुजा कंध धरि, सीतल द्रुम की छाहिं।।
सुरस सुगंध भंद मलयानिल, बिहरत कुंजन माहि।
जो क्रीड़ा श्री वृंदावन मैं, तिहुँ लोक मै नाहि।।
सुरभी ग्वाल नंद अरु जसुमति, मम चित तै न टराहि।
‘सूरदास’ प्रभु चतुर सिरोमनि, तिनकी सेव कराहि।। 4273।।