रास रस रीति नहिं बरनि आवै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मलार


रास-रस-रीति नहिं बरनि आवै।
कहाँ वैसी बुद्धि, कहाँ वह मन लहौं, कहाँ यह चित्त जिय भ्रम भुलावै।।
जौ कहौं, कौन मानै, जो निगम-अगम-कृपा बिनु नहीं या रसहि पावै।
भाव सौं भजै, बिनु भाव मैं ये नहीं भावही माहिं ध्यानहि बसावै।।
यहै निज मंत्र, यह ज्ञान यह ध्यान है, दरस है, दरस-दंपति भजन-सार गाऊँ।
यहै माँगौं बार-बार प्रभु सूर के, नैन दोउ रहैं, नर-देह पाऊँ।।1006।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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