राधा सखी देखि हरषानी।
आतुर स्याम पठाई याकौ, अंतरगत की जानी।।
वह सोभा निरखत अँग अँग की, हरी निहारि निहारि।
चकित देखि नागरि मुख वाकौ, तुरत सिगारनि सारि।।
ताहि कह्यौ सुख दै चलि हरि कौ, मै आवति हौ पाछै।
वैसैहि फिरी 'सूर' के प्रभु पै, जहाँ कुंज गृह काछै।।2607।।