रही जहाँ सो तहाँ सब ठाढी।
हरि के चलत देखियत ऐसी, मनहु चित्र लिखि काढी।।
सूखे बदन, स्रवति नैननि तै, जलधारा उर बाढी।
कधनि बाँह धरे चितवतिं मनु, द्रुमनि बेलि दब दाढी।।
नीरज करि छाँड़ी सुफलकसुत, जैसे दूध बिनु साढी।
'सूरदास' अकूर कृपा तै, सही विपति तन गाढ़ी।।2994।।