रसना जुगल रसनिधि बोल -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग नट


रसना जुगल रसनिधि बोल।
कनक बेलि तमाल अरुही, सुभुज बंध अखोल।।
भृग जूथ सुधाकरनि मनु, सघन आवत जात।
सुरसरी पर तरनि तनया, उमँगि तट न समात।।
कोकनद पर तरनि तांडव, मीन खंजन संग।
कीर तिल जल सिखर मिलि जुग, मनौ संगम रंग।
जलद तै तारा गिरत खसि, परत पयनिधि माहि।
जुग भुजंग प्रसन्न मुख ह्वै, कनक घट लपटाहिं।।
कनक संपुट कोकिला रस बिवस ह्वै दै दान।
विकच कंज अनारँगी पर लसि, करत पय पान।।
दामिनी थिर, घन घटा चर, कबहुँ ह्वै इहिं भाँति।
कबहुँ दिन उद्योत, कबहुँ होति अति कुहु राति।।
सिंह मध्य सनाद मनि गन, सरस सर कै तीर।
कमल जुग बिनु नाल उलटे, कछुक तीच्छ्न नीर।।
हस साखा सिखर चढ़ि चढ़ि, करत नाना नाद।
मकर निजपद निकट बिहरत, मिलन अति अहलाद।।
प्रेम हित कै छीर सागर, भई मनसा एक।
स्याम मनि के अग चदन, अमी के अभिषेक।।
'सूरदास' सखी सबै मिलि, करति बुद्धि विचार।
समय सोभा लगि रही, मनु सूम कौ संसार।।2132।।

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