यह सुनि कै मन स्याम सिहात।
पुलकित अंग रहै नहिं धीरज, पुनि पुनि पंथ निहारत जात।।
कुंजभवन कुसुमनि की सज्या, अपने हाथ निवारत पात।
जे द्रुमलता लटकि तनु लागति, ते ऊँचै धरी पुलकित गात।।
प्यारी अँग अति कोमल जानत, सेज कली चुनि डारत।
'सूर' स्याम रीझत मनही मन, सुधि करि छबिहिं निहारत।।2442।।