यह सुनत नागरी माथ नायौ।
स्याम रसबस भरे, मदन जिय डरडरे, सुंदरी बात कौ भेद पायौ।।
खरे ब्रज जमुन बिन, दुहुँनि मन अति सकुच, और कछु बनै नहिं बुद्धि ठानी।
तबहिं ब्रज नारि आवत देखि, जमुन तै, इक ब्रजहिं तै जु राधा लजानी।।
स्याम हँसि कै चले तुरत, ग्वालनि मिले कहाँ सब रहे कहि हाँक दीन्ही।
भाव यह करि गए, 'सूर' प्रभु गुन नए, नागरी रसिक जिय जानि लीन्ही।।1949।।