यह सखि अब लौ कहाँ दुराई -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग रामकली


यह सखि अब लौ कहाँ दुराई।
इते दिवस हम कबहुँ न देखी, अब जु कहाँ तै आई।।
त्रिभुवन की सोभा सब गुननिधि, है बिधि एक उपाई।
बिद्यमान वृषभानुनंदिनी सहचरि सब सुखदाई।।
अपनै मन तकि तकि तनु तोलति, बिय जन सुंदरताई।
द्वितिय रूप की रासि राधिका, कहौ कौन पुर पाई।।
राँचि रहे रस सुरति 'सूर' दोउ, निरखत नैन निकाई।
चीन्हे हौ चलि जाहु कुंजगृह, छाँड़ि देहु चतुराई।।2168।।

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