यह मुरली बन-झार की, बिनु ल्याऐं आई।
हमहीं कौं दुख देन कौं, ब्रज भए कन्हाई।।
ओरहिं तैं हमसौं लरैं, करते बरियाई।
गागरी फोरैं घाट मैं, दधि-माट ढराई।।
पुनि रोकत हैं दान कौं, अंग-भूषन माई।
सीखी चोरी आदि तैं मन लियौ चोराई।।
पुनि लोचन अँटके रहैं, अजहूँ नहिं आए।
हमसौं उचटे रहत हैं, मुरली चित लाए।।
दोष कहा वाकौ सखी, इनके गुन ऐसे।
सूर परस्पर नागरी, कहैं स्याम अनैसे।।1291।।