यह गोकुल गोपाल उपासी।
जे गाहक निरगुन के ऊधौ, ते सब बसत ईसपुर कासी।।
जद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि, तदपि रहतिं चरननि रस रासी।
अपनी सीतलता नहिं छाँड़त, जद्यपि विधु भयौ राहु गरासी।।
किहिं अपराध जोग लिखि पठवत, प्रेमभगति तै करत उदासी।
'सूरदास' ऐसी को विरहिनि, माँगि मुक्ति छाँडै गुनरासी।।3928।।