मो मति अजहुँ जानकी दीजै।
लंकापति-तिय कहति पिया सौं, यामैं कछू न छीजै।
पाहन तारे, सागर बाँध्यौं, तापर चरन न भीजै।
बनचर एक लंक तिहिं जारी, ताकी सरि क्यौं कीजै।
चरन टेकि दोउ हाथ जोरि कै, बिनती क्यौं नहिं कीजै।
वै वित्रभुवन प्रति, करहिं कृपा अति, कुटुँब-सहित सुख जीजै।
आवत देखि बान रघपुति कै, तेरौ मम न पतीजै।
सूरदास प्रभु लंक जारि कै, राज बिभिषन दीजै॥126॥