मो मति अजहुँ जानकी दीजै -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू


 
मो मति अजहुँ जानकी दीजै।
लंकापति-तिय कहति पिया सौं, यामैं कछू न छीजै।
पाहन तारे, सागर बाँध्यौं, तापर चरन न भीजै।
बनचर एक लंक तिहिं जारी, ताकी सरि क्यौं कीजै।
चरन टेकि दोउ हाथ जोरि कै, बिनती क्यौं नहिं कीजै।
वै वित्रभुवन प्रति, करहिं कृपा अति, कुटुँब-सहित सुख जीजै।
आवत देखि बान रघपुति कै, तेरौ मम न पतीजै।
सूरदास प्रभु लंक जारि कै, राज बिभिषन दीजै॥126॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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