मैं तो राम-चरन चित दीन्हौं।
मनसा, वाचा और कर्मना, बहुरि मिलन, कौ आगम कीन्हौं।
डुलै सुमेरु सेष-सिर कैपै, पच्छिम उदै करै बासर-पति।
सुनि त्रिजटी, तौहूँ नहिं छाड़ौं मधुर मूर्ति रघुनाथ-गात-रति।
सीता करति विचार मनहिं मन, आजु-काल्हि कोसलपति आवैं।
सूरदास स्वामी करुनामय, सो कृपाल मोहिं क्यौं बिसरावैं॥82॥