मेरौ मन हरि-चितवनि अरुझानौ।
फेरत कमल द्वार ह्वै निकसे, करत सिंगार भुलानौ।।
अरुन अधर, दसननि दुति राजति, मो तन मुरि मुसुकानौ।
उदधि-सुता-सुत पाँति कमल मैं, बंदन भुरके मानौ।।
इहिं रस मगन रहति निसि-बासर, हार जीति नहिं जानौ।
सूरदास चित-भंग होत क्यौं जो जिहिं रूप समानौ।।1667।।