मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसैं उड़ि जहाज कौ पच्छी फिर जहाज पर आवै।
कमल-नैन कौ छाँड़ि महातम, और देव कौं ध्यावै।
परम गंग कौं छाड़ि पियासौ दुरमति कूप खनावै।
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाल्यौं, क्यौं करील फल भावै।
सूरदास-प्रभू कामधेनु तजि, छेरो कौन दुहावै।।168।।