मेरे लाड़िले हो तुम जाउ न कहूँ।
तेरेही काजैं गोपाल, सुनहु लाड़िले लाल, राखे हैं भाजन भरि सुरस छहूँ।
काहे कौं पराऐं जाइ, करत इते उपाइ, दूध-दही-घृत अरु माखन तहूँ।
करहिं कछू न कानि, बकति हैं कटु बानि, निपट निलज बैन बिलखि सहूँ।
ब्रज की ढीठी गुवारि, हाट की बेचनहारि, सकुचैं न देत गारि झगरत हूँ।
कहाँ लगि सहौं रिस, बकत भई हौं कृस, इहिं मिस सूर स्याम बदन चहूँ।।295।।