मेरी नौका जनि चढ़ौ त्रिभुवनपति राई।
मो देखत पाइन तरे, मेरी काठ की नाई।
मैं खेई ही पार कौं तुम उलटि मँगाई।
मेरौ जिय यौं ही डरै, मति होहि सिलाई।
मैं निरबल वित-बल नहीं, जो और गढ़ाऊँ।
मो कुटंबु याही लग्यौ, ऐसी कहँ पाऊँ?
मैं निधँन, कछु धन नहीं, परिवार धनेरौ।
सेमर-ढाकहिं काटि कै, बाँधौं तुम वैरौ।
बार-बार श्रोपति कहैं, घीवर नहिं मानै।
मन प्रतीति नहीं आवई, उड़िवौं ही जानै।
नेरैं ही जलथाह है, चलौ तुम्हैं बताऊँ।
सूरदास की वीनती, नोके पहुँचाऊँ॥42॥